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ज़बान / ऋचा जैन

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मेरे परदादा में दादा बसते थे, दादा में पापा, पापा में मैं
परदादा भी उनके पापा में, उनके पापा उनके दादा में, उनके दादा उनके परदादा में
सदियों से बस यूँ ही बसा करते थे
हम एक दूसरे में
परदादा प्रार्थना करते तो दादा शीश झुकाते, पापा शीश झुकाते
परदादा गाते तो संग दादा गुनगुनाते, पापा गुनगुनाते
परदादा के चुटकुले पर दादा हँसते, पापा खिलखिलाते
परदादा की पारियों से दादा ने बातें कीं, पापा ने बातें कीं
परदादा की लोरी से दादा सोये, पापा सोये
पापा तुतलाए तो दादा ने सुधारा, परदादा ने भी
 
फिर एक दिन, दूर सफ़ेद देश से एक मदारी आया
कई खेल थे उसके पिटारे में
जादू भी–
आँखें-फाड़े सबने खेल देखे, सबने सराहा, तालियाँ पीटीं
जादू में बँधे पापा उसके करीब पहुँचे
 
पापा बोले तो वह हँस दिया
पापा गाए तो वह चीख दिया
पापा ने प्रार्थना की तो उसने कान बंद कर लिए
पापा सहम गए

फिर हिम्मत जुटा बोले–यूँ नहीं तो फिर कैसे?
 
बस फिर क्या था, उसने जादू से पापा में बसी मेरी
मेरी ज़बान बदल दी
मुझे उसमें हँसना था, रोना था, गाना था, सोना था

मैं अब भी तुतलाती हूँ
पापा नहीं समझ पाते मेरा तुतलाना
दादा नहीं हँसते मेरे चुटकुलों पर और ना ही मैं उनके
परदादा की पारियाँ नहीं आतीं मेरे करीब
परदादा गाते हैं तो संग दादा गुनगुनाते हैं, पापा गुनगुनाते हैं,
मैं हेड फोन लगा ढोंग करती हूँ उनके साथ झूमने का
उन्हें पता है नहीं बस सकते अब हम एक दूसरे में
हमज़बान नहीं अब हम