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ज़माँ मकाँ थे मेरे सामने बिखरते हुए / मनचंदा बानी
Kavita Kosh से
ज़माँ मकाँ<ref>समय और अंतरिक्ष</ref> थे मेरे सामने बिखरते हुए ।
मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र<ref>लम्बा सफ़र</ref>से डरते हुए ।
बस एक ज़ख़्म था दिल में जगह बनाता हुआ
हज़ार ग़म थे मगर भूलते बिसरते हुए ।
वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर<ref>अंतिम सुंदरता</ref> था
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए ।
अजब नज़ारा था बस्ती के उस किनारे पर
सभी बिछड़ गए दरिया से पार उतरते हुए ।
वही हुआ कि तक्ल्लुफ़<ref>औपचारिकता</ref> का हुस्न बीच में था
बदन थे क़ुर्ब-ए-तेही-लम्स<ref>ऐसा आलिंगन जो नज़दीक से खाली हो</ref> से बिखरते हुए ।
शब्दार्थ
<references/>