भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़माने का हर दर्द मैं पी रहा हूँ / हरिराज सिंह 'नूर'
Kavita Kosh से
ज़माने का हर दर्द मैं पी रहा हूँ।
ज़रा देखिए किस तरह जी रहा हूँ!
गुनाहों की गठरी को मैं फेंक आया,
तुम्हें इस से क्या, कल मैं जो भी रहा हूँ!
सफ़र तय करें अनगिनत साथ मेरे,
मगर मैं तो तन्हा क़मर ही रहा हूँ।
ज़ुबां के ज़रा-सा फिसलने से पहले,
लबों को मैं अपने अभी सी रहा हूँ।
वफ़ाओं की दुनिया सजाए हुए हूँ,
उमीदों पे ऐ ‘नूर’ मैं जी रहा हूँ।