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ज़मीं के बेतहाशा भाव बढ़ते जा रहे हैं / राम नारायण मीणा "हलधर"

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ज़मीं के बेतहाशा भाव बढ़ते जा रहे हैं
घरों में रंजिशें-अलगाव बढ़ते जा रहे हैं

उधर इक मेड़ की है दुश्मनी दो भाइयों में
इधर अँगनाई में टकराव बढ़ते जा रहे हैं

ससुरऔ'जेठ के वे बोल कड़वे कौन कम थे
उसे संतान से भी घाव बढ़ते जा रहे हैं

तुम्हारी राह में हर बार हमने गुल बिछाए
हमारे सर पे अब पथराव बढ़ते जा रहे हैं

हमारे द्वार पे हर दौड़ता रस्ता रुकेगा
तेरे क़दमों के अब ठहराव बढ़ते जा रहे हैं

मेरी उम्मीद के मुरझाय पौधे जी उठेंगे
तुम्हारी जुल्फ़ के छिड़काव बढ़ते जा रहे हैं

शिलाओं पे लिखी सच्चाइयाँ दम तोड़ती सी
किताबों में नए बदलाव बढ़ते जा रहे हैं