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ज़मीं को रख सकोगे यूँ बचाकर / माधव मधुकर
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ज़मीं को रख सकोगे यूँ बचाकर,
समुन्दर को नदी कर दो घटाकर ।
शरारे हैं, ये भड़केंगे यक़ीनन,
कहाँ तक रख सकोगे तुम दबाकर ।
जो बातें अम्न की आए थे करने,
गए वो जंग का जज़्बा जगाकर ।
लहू है, खोल देगा भेद सारा,
न निकलो तुम हथेली पर रचाकर ।
समय एक दिन बता देगा कि क्या हो ?
न आँको इस तरफ़ ख़ुद को बढ़ाकर ।
इरादे चाल से हम जान लेंगे
भले निकलो मुखौटों को लगाकर ।
ये भूखे लूट लेंगे दाना-दाना,
गोदामों में न तुम रखो छुपाकर ।
ज़माने ने अगर हमको सताया,
हम रख देंगे दुश्मन को मिटाकर ।
नए युग के निराले गीत गाओ,
पुराने साज अब रख दो उठा कर ।