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ज़मीं बाक़ी है पहले सी न ही वो आस्मां बाक़ी / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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ज़मीं बाक़ी है पहली सी, न ही वो आस्माँ बाक़ी
तुम्हारे दिल में वो मेरी मुहब्बत अब कहाँ बाक़ी!

हमें काफ़ी है हुस्न-ओ-इश्क़ की ये जल्वा-सामानी
ख़ुदा रख़्ख़े तुम्हारी हसरत-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ बाक़ी!

ख़ुद अपनी राह का पत्थर था, शिकवा क्या ज़माने से?
ताअज्जुब क्या अगर मेरा नहीं नाम-ओ-निशाँ बाक़ी!

कहानी है तो इतनी है हमारी ज़िन्दगानी की
दलील-ए-कारवाँ मौहूम, गर्द-ए-कारवाँ बाक़ी!

गुज़रगाह-ए-ख़याल-ए-यार था मेरा दिल-ए-मरहूम
मगर अब रह गई कहने को बस इक दास्ताँ बाक़ी!

रह-ए-उल्फ़त में चलते चलते ऐसा भी मक़ाम आया
रिवाज-ए-सज्दा बाक़ी था, न थी रस्म-ए-अज़ाँ बाक़ी

बहुत चाहा कि तेरी ज़ात में खो जाऊँ मैं लेकिन
मिरी ये तिश्ना-कामी! रह गया सोज़-ए-निहाँ बाक़ी!

ख़ुदा के वास्ते अब छोड़ ये इश्क़-ए-बुताँ "सरवर"
न जाने रह गई है किस क़दर उम्र-ए-रवाँ बाक़ी!