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ज़मीन छोड़ कर ऊँची उड़ान में ही रहा / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
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ज़मीन छोड़ कर ऊँची उड़ान में ही रहा
अजीब शख़्स था वहमो—गुमान में ही रहा
तमाम उम्र कोई था निगाह में लेकिन
वो एक तीर जो अपनी उड़ान में ही रहा
कहाँ सुकून था लेकिन कहाँ तलाश किया
हर एक शख़्स फ़क़त आनबान में ही रहा
जहाँ भी मुड़ के कभी हमने ध्यान से देखा
बला का दोस्त भी अपने मचान में ही रहा
वो चार साल का बचपन गुज़र गया जब से
हर एक लम्हा किसी इम्तहान में ही रहा
शहर में करते तो हम किससे गुफ़्तगू करते
कि हमक़लम भी तो अपनी दुकान में ही रहा
बढ़ा के देख लिया हाथ हर दफ़ा हमने
सभी का हाथ तो अपनी थकान में ही रहा
कहीं पे शोर उठा या कहीं पे आग लगी
ज़हीन आदमी अपने मकान में ही रहा.