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ज़रा आँख झपकी सहर हो गई / इस्मत ज़ैदी

दुआ जो मेरी बेअसर हो गई
फिर इक आरज़ू दर बदर हो गई

वफ़ा हम ने तुझ से निभाई मगर
निगह में तेरी बेसमर<ref>असफल</ref> हो गई

तलाश ए सुकूँ में भटकते रहे
हयात अपनी यूंही बसर हो गई

कड़ी धूप की सख़्तियाँ झेल कर
थी ममता जो मिस्ले शजर<ref>पेड़</ref> हो गई

न जाने कि लोरी बनी कब ग़ज़ल
"ज़रा आँख झपकी सहर हो गई"

वो लम्बी मसाफ़त<ref>दूरी</ref> की मंज़िल मेरी
तेरा साथ था ,मुख़्तसर<ref>छोटी</ref> हो गई

मैं जब भी उठा ले के परचम<ref>झंडा</ref> कोई
तो काँटों भरी रहगुज़र<ref>रास्ता</ref> हो गई

’शेफ़ा’ तेरा लहजा ही कमज़ोर था
तेरी बात गर्द ए सफ़र<ref>राह की धूल</ref> हो गई

शब्दार्थ
<references/>