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ज़र है जन्नत, ज़र न दोज़ख, हाए हम आए कहाँ / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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ज़र है जन्नत, ज़र न दोज़ख, हाए हम आए कहाँ
"सर छुपाने के लिए मुफलिस भला जाए कहाँ"
 
दिल का दामन तर-बतर था चश्म फिर भी खुश्क थे
सुर्ख़ियों में जब्त आँसू आँख में आए कहाँ
 
छुप-छुपाकर बिजलियों से जुस्तजू-ए-यार में
ले के सर पर फिर रहा छप्पर मगर छाए कहाँ
 
चैन से रोटी न खाने दी सितमगर ने कभी
ज़िन्दगी हो या जहन्नुम चैन वो पाए कहाँ
 
करवटों में रात काटी गर्म साँसें सर्द शब
जिनको आना था न आए हम भी गरमाए कहाँ
 
कम पड़े जब हाथ मेरे माँ का आँचल मिल गया
है पशेमां भी सितमगर जुल्म अब ढाए कहाँ

चारसू बम के धमाके हो रहे हैं शहर में
छोड़कर अपना मुक़द्दर जाए तो जाए कहाँ

वो सुराहीदार गर्दन और वो पतली कमर
रास्ता सीधा कमर खाए तो बलखाए कहाँ
 
भोग छप्पन, सेब और अंगूरो केले सब 'रक़ीब'
ख्वाब में देखा किए हरदम मगर खाए कहाँ