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ज़र / नज़ीर अकबराबादी

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दुनियां में कौन है जो नहीं मुब्तिलाए<ref>ग्रस्त, फंसा हुआ</ref> ज़र।
जितने हैं सबके दिल में भरी है हवाए ज़र॥
आंखों में, दिल में, जान में सीने में जाये<ref>स्थान</ref> ज़र।
हमको भी कुछ तलाश नहीं अब सिवाये मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है, दिन रात हाये ज़र॥1॥

कितने तो ज़र को नक़्शे तिलिस्मान कहते हैं।
और कितने ज़र को कश्फ़ो करामात कहते हैं॥
कितने खु़दा की ऐन<ref>ख़ास</ref> इनायात कहते हैं।
कितने इसी को क़ाज़ियुलहाजात<ref>इच्छाओं की पूर्ति करने वाला</ref> कहते हैं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥2॥

यह पानी जो अब ज़ीस्त<ref>जीवन</ref> की सबकी निशानी है।
ज़र की झमक को देख के अब यह भी पानी है॥
यारो हमारी जिसकेसबब ज़िन्दिगानी है।
यह पानी यह नहीं है, वह सोने का पानी है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥3॥

आबेतिला<ref>सोने का पानी</ref> की बूंद भी अब जिसके हाथ है।
वह बूंद क्या है चश्मए आबे हयात<ref>अमृत</ref> है॥
दुनियां में ऐश, दीन भी इश्रत के साथ है।
ज़र वह है जिससे दोनों जहां में निजात<ref>मोक्ष, छुटकारा</ref> है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥4॥

सुर्मे की जिसके पास तिला<ref>सोना</ref> की सलाई है।
आंखों में उसकी आब, बड़ी रोशनाई है॥
ले अर्श<ref>आसमान</ref> फर्श<ref>ज़मीन</ref> सब उसे देता दिखाई है।
ख़ालिक ने देख नूर की पुतली बनाई है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥5॥

ज़र खान में गड़ा है तो वां भी बहार है।
शमशीर पर चढ़ा है तो वां भी बहार है॥
दीवार में लगा है तो वां भी बहार है।
गर ख़ाक में गिरा है तो वां भी बहार है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥6॥

ज़र के दिये से पीर और उस्ताद नर्म हो।
ज़र के सबब<ref>कारण</ref> से दुश्मने नाशाद<ref>नाराज, अप्रसन्न</ref> नर्म हो॥
जो शोख़ संग दिल है परीज़ाद नर्म हो।
ज़र वह है जिसको देख के फ़ौलाद नर्म हो॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥7॥

कपड़े पे गर लगा है तिलाई<ref>सुनहरी</ref> कलाबतूं।
मैं उसके तार तार की तारीफ़ क्या कहूँ॥
हो दस्त रस तो चोर उचक्के को क्या कहूं।
मेरे भी दिल में है कि मैं ही उसको छीन लूं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥8॥

जा लोग रोम, श्याम में ज़र को कमाते हैं।
माचीन<ref>इंडोचाइना, हिन्द चीन</ref> चीन ज़र के जहाज़ आते जाते हैं॥
दक्खिन से ज़र के वास्ते सब यां को आते हैं।
और यां के ज़र के वास्ते दक्खिन को जाते हैं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥9॥

सोने की जदूले<ref>पुस्तक के चारों ओर का हाशिया</ref> जो किताबों पे आम हैं।
वह जदूलें वह रंग वह सोने के काम हैं॥
जिनके वर्क़ वर्क़ ही सुनहरे तमाम हैं।
सब में ज्यादा उनकी ही क़ीमत हैं नाम हैं॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥10॥

अब जिनके घर में ढेर हैं सोने के दाम के।
हर एक उम्मीदवार हैं उनके सलाम के॥
सब मिलके पांव चूमे हैं उनके गुलाम के।
क्या रुतबे है तिलाए अलैहिस्सलाम के॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥11॥

कितनों के दिल में धुल है कि ज़र ही कमाइये।
कुछ खाइए, खिलाइए और कुछ बनाइए॥
कहता है कोई हाय कहां ज़र को पाइए।
क्या कीजिए ज़हर खाइए और मर ही जाइए॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥12॥

सोना अगरचे ज़र्द है या सुर्ख फ़ाम<ref>लाल रंगवाला</ref> है।
लेकिन तमाम ख़ल्क़ को उससे ही काम है॥
सबमें ज्यादा हुस्न की उल्फ़त का दाम है।
ज़र वह है जिसका हुस्न भी अदना गुलाम है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥13॥

सर पांव से जो सोने के गहने के जै़ल हैं।
जो देखता है उसके वही दिल को मैल है॥
वह चाह यह मिलाप तो ज़र के तुफैल है।
न पूछते हैं भूत है वह या चुडै़ल है॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥14॥

होती हैं ज़र के वास्ते हर जा चढ़ाइयां।
कटते हैं हाथ पांव गले और कलाइयां॥
बन्दूकें और हैं कहीं तोपें लगाइयां।
कुल ज़र की हो रही हैं जहां में लड़ाइयां॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥15॥

लड़का सलाम करता है झुक झुक के रश्के<ref>चांद की प्रभा को मंद कर देने वाले मुखवाला</ref> माह।
बूढ़े बड़े सब उसकी तरफ़ प्यार करके वाह॥
देते हैं यह दुआ उसे तब दिल से ख़्वाह्मख़्वाह।
‘ऐ मेरे लाल हो तेरा सोने के सेहरे व्याह॥’
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥16॥

जितनी जहां में ख़ल्क़ है क्या शाह क्या वज़ीर।
पीरो, मुरीद, मुफ्लिसो, मोहताज और फ़क़ीर॥
सब हैगे ज़र के जाल में जो जान से असीर।
क्या क्या कहूं मैं खू़बियां ज़र की मियां ‘नज़ीर’॥
जो है सो हो रहा है सदा मुब्तिलाए ज़र।
हर एक यही पुकारे है दिन रात हाये ज़र॥17॥

शब्दार्थ
<references/>