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ज़लज़़ले सब दिल के अंदर हो गए / मज़हर इमाम
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ज़लज़़ले सब दिल के अंदर हो गए
हादसे रूमान-पर्वर हो गए
कश्तियों की कीमतें बढ़ने लगीं
जितने सहरा थे समुंदर हो गए
धूप में पहले पिघल जाते थे लोग
अब के क्या ग़ुज़री कि पत्थर हो गए
वो निगाहें क्या फिरीं हम से कि हम
अपनी ही आँखो में कम-तर हो गए
तुम कि हर दिल में तुम्हारा घर हुआ
हम कि अपने घर में बे-घर हो गए