ज़हरवाले न हों कोई जगह ऐसी नहीं होती / विनय कुमार
ज़हरवाले न हों कोई जगह ऐसी नहीं होती।
कहीं जंगल नहीं होता, कहीं बस्ती नहीं होती।
छतों के बीच अम्बर छेंकने की जंग छिड़ती है
पहल जब आसमां को छत बनाने की नहीं होती।
अमीरी का सफ़र बाहर, फ़कीरी का सफ़र भीतर
किसी लम्बे सफ़र की रहगुज़र सीधी नहीं होती।
खुशी खरगो श है, शा तिर हवा है, शेख चिड़िया है
खुशी लंगड़ी भिखारिन सी कहीं बैठी नहीं होती।
नयी मिट्टी, नया पानी, मछलियों के नये कुनबे
नदी बासी नहीं होती, नदी बूढ़ी नहीं होती।
न तो अम्बर पिघलता है न दरिया खून रोता है
दिलों के डूबने की शाम सतरंगी नहीं होती।
न दिल बनते न ज़ाँ बनते, दिलोज़ाँ से न माँ बनते
हमारी गोद में ग़र फूल सी बेटी नहीं होती।
अमा तुम चोंचले छोड़ो हमें भी सांस लेने दो
किसी के सांस लेने से हवा जूठी नहीं होती।