ज़हर / महेंद्र नेह
न जाने क्या-क्या हो रहा है
इक्कीसवीं सदी में
अप्रत्याशित, अकल्पित और अद्भुत्त
मगर कुछ लोग हैं जो
इक्कीसवीं सदी में
सिर्फ़ ज़हर बोने में लगे हैं
वे उगा रहे हैं ज़हर की फ़सलें
गलियों -मोहल्लों में
काग़ज़ों, फ़ेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स-अप पर
वे ज़हर का स्प्रे कर रहे हैं
उन लोगों के बीच
जो उगा रहे हैं — अन्न, कपास, तरकारियाँ और फल
जो चला रहे हैं — हल, ट्रेक्टर, बसें और रेल
जो बना रहे हैं — बिस्कुट, टॉफ़ी, केक, मोज़े , रूमाल
किताबें और खिलौने
वे स्वयं
तर-ब-तर हैं ज़हर से
और अपने सभी सगे-सम्बन्धियों —
भाइयों, बहिनों, माँ, पत्नी, बच्चों
और अपने प्यारे दोस्तों को भी
नहला रहे हैं
ज़हर की तीक्ष्ण धार से
एक उन्माद, एक वहिशियाना
पागलपन सवार है उन पर
ज़हर बोने, ज़हर बाँटने और ज़हर में
नहाने-नहलाने का
उन्हें नहीं मालूम कि हम
जिन्हें वे अपना दाना-दुश्मन समझते हैं
आजकल
अपना बहुत सा समय
उन जड़ी - बूटियों और उपायों को
ढूँढ़ने में लगा रहे हैं, जिनके सामने
दुनिया का सबसे तेज़ ज़हर
हमेशा के लिए हो जाएगा
बे-असर ....।