भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िंदगी एक रस / रामावतार त्यागी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िंदगी एक रस किस क़दर हो गई
एक बस्ती थी वो भी शहर हो गई

घर की दीवार पोती गई इस तरह
लोग समझें कि लो अब सहर हो गई

हाय इतने अभी बच गए आदमी
गिनते-गिनते जिन्हें दोपहर हो गई

कोई खुद्दार दीपक जले किसलिए
जब सियासत अंधेरों का घर हो गई

कल के आज के मुझ में यह फ़र्क है
जो नदी थी कभी वो लहर हो गई

एक ग़म था जो अब देवता बन गया
एक ख़ुशी है कि वह जानवर हो गई

जब मशालें लगातार बढ़ती गईं
रौशनी हारकर मुख्तसर हो गई.