ज़िंदगी की नाव / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
खून से भीगे हुए हैं, इस समय के पाँव।
भग्न चूड़ी औ' महावर के मिले अवशेष।
बौलियों में घुल गया है, गाँव का परिवेश।
आँकड़ों को ही छुपाने, में लगा है भूप।
और बर्बर हो गयी है, हर सुबह की धूप।
बह रही है मौत सड़कों पर, शहर से गाँव।
खून से भीगे हुए हैं, इस समय के पाँव।
संक्रमण का दौर है, दुबके घरों में लोग।
बन्द हैं सारी दुकानें, मंद हैं उद्योग।
अनवरत जलती चिताएँ, सायरन का शोर।
नृत्य करती दिख रही है, मृत्यु चारों ओर।
श्वास की गति थम रही है, हर गली हर ठाँव।
खून से भीगे हुए हैं, इस समय के पाँव।
हर तरफ़ संवेदनाओं की कटी है डोर।
कौन जाने इस अमा की, कब लिखी है भोर।
अस्पतालों में बिलखती, सभ्यता की ईंट।
है व्यवस्था के कँगूरे, पर लहू की छींट।
हर तरफ़ आतप, न कोई ठौर ठंडी छाँव।
खून से भीगे हुए हैं, इस समय के पाँव।
किन्तु हैं कुछ लोग, जिनसे जीतने की आस।
ठान ले मानव! उगा दे, मरुथलों में घास।
हर घड़ी उम्मीद के, जलते रहे हैं दीप।
कब भला होते पृथक हैं, मोतियों से सीप?
धैर्य की पतवार खेती, ज़िंदगी की नाव।
खून से भीगे हुए हैं, इस समय के पाँव।