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ज़िंदगी की मैली ढोयी रंगत / नीलोत्पल

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यह बात बंद लिफ़ाफ़े की तरह है
जहां कोहरे से ढंके दो हाथ
जिन्हें छूने की कोशिश करना भी
असभ्य, असंगत हो सकता है
जैसे दोनों हाथों की ख़ामोशियां कितना कहती हैं
कोई नहीं जानता

इन मैले झूठे बर्तनों में कितनी चमक बाकी है
कोई नहीं जानता सिवाए उसके
जो अंधेरे घरों से निकल रही है
जिसने अपना पल्लू कमर में खोंस रखा है
तेजी से उठते हैं उसके कदम
उसके कदम उसके नहीं हैं
वे ज़िंदगी की मैली ढोयी रंगत है
जो दीवारों पर आते ही अदृश्य हो जाते हैं

याद करने पर भी
कोई ऐसा मौसम याद नहीं आता
जिसने रखा हो उसके लिए थोड़ा बहुत बसंत
लच्छेदार बारिशें, ऊंचे टीलों पर बिखरती धूप
जहां से चिडियां लौटती हैं कुनकुनी होकर
हरे रांएदार उठे हुए खेत

वह ऐसे देखती है पृथ्वी को
जैसे दो सूजे पांव उठते नहीं धरती पर
याद करने के सारे मौसम बीत जाते हैं
परंतु उन घरों की जूठन खत्म नहीं होती

जिसके लिए उसने अभी-अभी बढ़ाया है कदम ........

उसके लिए कोई आवाज़, कोई चीख , कोई भ्रम नहीं
वह जा रही है
अपने बिसरे मौसमों की रूपहली चादर ओढ़े
जिसमें ढेरों विदाईयां हैं हमारे लिए