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ज़िंदगी लिखते हुए / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
हवा की सीढ़ियां चढ़
मिट्टी आकाश को उड़ रही
उफ़नता समुद्र में डूबता सूर्य
कुछ कहता रहा
चांद के मौन पर
जुगनुएं चीख़ती रहीं
स्याह रातें
कुछ अनकही
कहती रहीं
सूरज डूबता रहा
क्षितिज अपने पृष्ठ पर
अनदेखे चित्र
उकेरता रहा
पत्तियों पर
अनसुने बोल
बजते रहे
सांस लय देते रहे
सांस लय लेते रहे
सब बहते रहे
सब डूबते रहे
पर एक ध्वज लहराता रहा
नाव की पतवार पर
ज़िंदगी लिखता रहा
समंदर के झाग पर।