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ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं / शहबाज़ ख्वाज़ा

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ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
आँख में अश्क जो चमकें तो सहर ढूँडते हैं

ख़ाक की तह से उधर कोई कहाँ मिलता है
हम को मालूम है यह बात मगर ढूँडते हैं

कार-ए-दुनिया से उलझती है जो साँसे अपनी
ज़ख़्म गिनते है कभी मिस्रा-ए-तर ढूँडते हैं

बे-हुनर होना भी है मौत की सूरत ऐ दोस्त
ज़िंदा रहने के लिए कोई हुनर ढूँडते हैं

दस्तकें कब से हथेली में छूपी है ‘शहबाज़’
शहर-ए-असरार की दीवार में दर ढूँडते हैं