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ज़िक्रे-उल्फ़त में अब है दम कितना / रवि सिन्हा
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ज़िक्रे-उल्फ़त में अब है दम कितना
उनकी यादों से चश्म नम कितना
ज़र्फ़े-बातिन में अब जगह कितनी
ज़ख़्मे-दिल से रिसा है ग़म कितना
उम्र गुज़री है बस उलझने में
उनकी ज़ुल्फ़ों में पेंचो-ख़म कितना
बात दोज़ख़ में रोज़ जन्नत की
ये ज़माना है ख़ुशफ़हम कितना
खूँ का दरिया है आग भी फैली
आज शैताँ को काम कम कितना
ताज क़ातिल के सर पे रख देवे
मुल्के-जम्हूर में रहम कितना
ये जो साज़िश रची गई उसमें
दैर कितना है औ' हरम कितना
शब्दार्थ :
ज़र्फ़े-बातिन – अन्दरूनी बर्तन (inner pot), ह्रदय का पात्र (pot of the heart);
जम्हूर – अवाम (people, masses);
दैर (dair) – मन्दिर (temple);
हरम (haram) – मस्जिद (mosque)