अब मेरे दिल में नहीं है घर तेरा 
ज़िक्र होता है मगर अक्सर तेरा 
हाँ! ये माना है मुनासिब डर तेरा 
आदतन नाम आ गया लब पर तेरा 
भूल तो जाऊँ तुझे पर क्या करूँ 
उँगलियों को याद है नम्बर तेरा 
कर गया ज़ाहिर तेरी मजबूरियां 
टाल देना बात यूँ हँस कर तेरा 
शुक्र है! आया है पतझड़ लौट कर 
बाग़ से दिखने लगा फिर घर तेरा 
वो मुलाक़ात आख़िरी क्या खूब थी 
भूल जाना लाश में खंजर तेरा 
कोई बतलाये अगर मैं हूँ किधर 
तब तो शायद बन सकूँ रहबर तेरा 
हैं क़लम की भी तो कुछ मजबूरियाँ 
थक गया हूँ नाम लिख लिख कर तेरा 
बावरेपन की 'नकुल' अब हद हुई 
इश्क़ उसको? वो भी मुझसे? सर तेरा!