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ज़िद / राजेश जोशी

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निराशा मुझे माफ़ करो आज मैं नहीं निकाल पाऊँगा तुम्हारे लिए समय
आज मुझे एक ज़रूरी मीटिंग में जाना है

मुझे मालूम है तुम भी वही सब कहोगी
जो दूसरे भी अक्सर ही कहते रहते हैं उन लोगों के बारे में
कि गिनती के उन थोड़े से लोगों की बिसात ही क्या है
कि समाज में कौन सुनता है उनकी बात ?
कि उनके कुछ करने से क्या बदल जाएगा इस दुनिया में ?
हालाँकि कई बार उन्हें भी निरर्थक लगतीं हैं अपनी सारी कोशिशें
फिर भी एक ज़िद है कि लगे ही रहते हैं वे अपने काम में
कहीं घटी हो कोई घटना
दुनिया के किसी भी कोने में हुआ हो कोई अन्याय
कोई अत्याचार कोई दंगा या कोई दुर्घटना
वे हरकत में आ जाते हैं तत्काल
सूचित करने निकल पड़ते हैं सभी जान-पहचान के लोगों को
और अक्सर मुफ़्त या सस्ते में उपलब्ध किसी साधारण-सी जगह पर
किसी दोस्त के घर में या किसी सार्वजनिक-उद्यान में
आहूत करते हैं वे एक मीटिंग
घंटों पूरी घटना पर गंभीरता से बहस करते हैं
उसके विरूद्ध या पक्ष में पारित करते हैं एक प्रस्ताव

अपनी मीटिंग की वे ख़ुद ही तत्काल ख़बर बनाते हैं
ख़ुद ही उसे अख़बारों में लगाने जाते हैं
प्रतिरोध की इस बहुत छोटी-सी कार्यवाही की ख़बर
कभी-कभी कुछ अख़बार सिंगल कॉलम में छाप देते हैं
अक्सर तो बिना छपी ही रह जाती हैं उनकी ख़बरें

कई बार उदासी उन्हें भी घेर लेती हैं
उन्हें भी लगता है कि उनकी कोई आवाज़ नहीं इस समाज में

निराशा !
मैंने कई-कई बार तुम्हें उनके इर्द-गिर्द मंडराते
और फिर हाथ मलते हुए लौटते देखा है
मैंने देखा है तुम्हारे झाँसे में ज़्यादा देर तक नहीं रहते
                                      वे लोग


कभी-कभी किसी बड़े मुद्दे पर वे रैलियाँ निकालते हैं