ज़िन्दगी ! तुझ को क्या है अन्दाज़ा
जाने कब बिखर जाए शीराज़ा
वो तो दस्तक पे भी नहीं खुलता
जैसे हो कोई बन्द दरवाज़ा
ख़ुश्क होता है ख़ूने-दिल तो कहीं
जा के होती है इक ग़ज़ल ताज़ा
मिट न पाएँगी वक़्त की झुर्रियाँ
लाख चेहरे पे वो मले ग़ाज़ा
वो ज़माने से हट के चलता है
हर कोई कस रहा है आवाज़ा
चोट गर्चे बहुत पुरानी थी
ज़ख़्म उसका है आज तक ताज़ा
हमको अपनी ख़ताओं का ‘साग़र’
भुगतना ही पड़ेगा ख़मियाज़ा