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ज़िन्दगी कितने जख़्म खाये है / वसीम बरेलवी

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ज़िन्दगी कितने जख़्म खाये है
फिर भी क्या शय है मुस्कुराये है

उम्र-ए-एहसास रुक-सी जाये है
जब भी तेरा ख़याल आये है

घर तो घर, ज़ेहन भी जल उठते है
आग ऐसी कोई लगाये है

मैं तो गहरा कुआं हूँ ए लोगों
कौन मेरे क़रीब आये है

मैं तुझे भूल तो गया होता
क्या करूँ याद आ ही जाये है

दश्त-ए-शब में वो एक चीख की गूंज
कौन सन्नाटे को रुलाये है

जाने किस का है इंतिज़ार 'वसीम'
ज़िन्दगी है कि गुज़री जाये है।