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ज़िन्दगी कैसे बदलती है / महेन्द्र भटनागर

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यह झोपड़ी है फूस की,
जिसकी पुरानी भग्न दीवारें,
व आधी छत खुली!
:
इस रात में
जो है बड़ी ठंडी,
खड़ी है मौन, तम से ग्रस्त !
:
उसमें ले रहे हैं साँस
कोई तीन प्राणी,
हार जिनने
आज तक किंचित न मानी !
:
भूमि पर लेटे हुए,
गुदड़ी समेटे और गट्ठर से बने
निज ज्वाल-जीवन से हरारत पा
कुहर के बादलों में
गर्म साँसें खींचते हैं !
और उसका शक्तिशाली उर
दबाकर भेदते हैं !
:
भग्न यदि दीवार है
पर, भग्न आशा है नहीं !
विश्वास धूमिल
और दृढ़ आवाज़ बंदी है नहीं !
कल देख लेना
ज़िन्दगी कैसे बदलती है !