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ज़िन्दगी को और खिलने दें ज़रा-सा / कैलाश झा 'किंकर'

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ज़िन्दगी को और खिलने दें ज़रा-सा।
धूप-आँधी को भी सहने दें ज़रा-सा॥

सिलसिला रुकने न पाए सीखने का
ध्यान से बच्चों को पढ़ने दें ज़रा-सा।

मुफलिसी कल दूर होगी ही यकीनन
इस ख़ुशी में आज हँसने दें ज़रा-सा।

तीरगी में ही भटकते लोग हैं कुछ
अब उजाला उनमें भरने दें ज़रा-सा।

शायरी का दिन सुहाना आ गया है
शायरों को खुल के कहने दें ज़रा-सा।