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ज़िन्दगी थी सुराब हो के रही / परमानन्द शर्मा 'शरर'
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ज़िन्दगी थी सुराब हो के रही
अपनी मिट्टी ख़राब हो के रही
हमने कोशिश तो की न रोएँ मगर
बेबसी बे-नक़ाब हो के रही
क्या कहूँ उस जुनूँ की जिसके तफ़ैल
आरज़ू बे-हिजाब हो के रही
हाय वो इक दबी- दबी-सी नज़र
क्या हक़ीक़त थी ख़्वाब हो के रही
उनकी फ़ुर्क़त में ज़िन्दगी अपनी
इक मुसलसल अज़ाब हो के रही
उनसे मिलने की मुख़तसर -सी बात
ख़्वाब जैसी थी ख़्वाब हो के रही
ज़िन्दगानी की कशमकश में ‘शरर’
सर्फ़ उम्रे-शबाब हो के रही