भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी समेटते हुए / अंचित
Kavita Kosh से
बहुत कम
थोडा कुछ ही करना पड़ता है
सुव्यवस्थित।
चार उधार लाई किताबें,
थोड़ा कुछ बचा रह गया चबेना...
एक आध अधूरी कहानी
बक्से में बहुत नीचे छुपा कर रखी हुई एक अँगूठी
(जिसको खोजते हुए पूरा दिन एक बार लग गया था।)
यही सब कुछ।
थोड़ा इधर, थोड़ा उधर।
फिर शाम की बस से जैसे झोला लटकाए
निकल जाना होता है कहीं
जैसे आप जाते हैं नाटक देखने
या एक शाम दोस्तों से मिलने किसी चाय की दूकान तक
या फिर बनिए की दूकान
खरीदने बर्तन धोने का साबुन।
अनवरत चलती रहती है सब समेटने की कोशिश
सोचता है हर आदमी
जाने से पहले