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ज़िन्दगी / जय प्रकाश लीलवान

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बन्द कमरों की
सीलन के भीतर
क्रोध के कोरस का नाम
ज़िन्दगी नहीं होता।

घर से दफ़्तर
और दफ़्तर से घर के
बीच का सफ़र ही
ज़िन्दगी नहीं होता।

बाज़ार की मृत-मखमल को ओढ़कर
देवताओं को दिए गए
अर्ध्यों की मूर्खता या ढोंग
का दुहराव भी ज़िन्दगी नहीं होता।

ज़िन्दगी तो उस कोयल का मीठा स्वर होता है
जो संगठन के बगीचे में
संघर्ष के आकाश तले
सभ्य क्रान्ति की रचना के लिए
निरन्तर कूकती है।