ज़ीमा जंकशन (भाग-5 / येव्गेनी येव्तुशेंको
जैकेट पहिने एक छोकरे ने
जगाया हमें
पसीने की बूँदें चमक रही थीं उसकी नाक पर
और हाथ में चाय के बरतन थे
उसने मुझे नफरत की नज़र से देखा
कहा उन सबको जो फर्श पर मीठी नींद सो रहे थे
‘नागरिको, क्या तुम बाहर बेरियों के लिए नहीं जा रहे?
समझ नहीं आता
तुम यहाँ अब तक सो क्यों रहे हो’
एक अकेली गाय आरामगाह से उठकर
घूम रही थी
नंगे पाँव एक औरत लकड़ियाँ काट रही थी
कानों को बहरा कर देने वाला शोर था सियारों का
मुर्गा बाँग दे रहा था
जैसे ही हम गुजरे
गाँव के फैले हुए बांगर से
नीले आसमान से जमीन तक
बर्फ की शहतीरों की तरह थीं
सूरज की किरणें
खुले हुए खेतों से झाड़-झंकाड़ में आओ
जहाँ अब भी ठण्ड ओस में जगमगा रही है
चिड़ियाँ चुग रही हैं
कुछ जंगली कोमल बेरियों में भाप उठ रही थी
कंटीले झाड़ों के बीच
एक-दूसरे से लिपटी छिपी हुई-सी
चीड़ों की नुकीली पत्तियाँ और कार्नबेरियाँ
तुम्हारे पाँवों को चुभ रहीं
लेकिन अच्छे रहे हम
इन बेरियों को पार करते हुए
घने जंगलों में उगती हैं स्त्राबेरियाँ
अचानक आगे किसी ने पुकारा
‘देखो वहाँ हैं और बहुत हैं
कंडी में खनकती चीज की तरह’
बढ़ते रहने की सहज प्रसन्नता
लेकिन युवा मार्गदर्शक के हवाले कर दिए गए हम
‘नागरिको, तुम पर हँसी आ रही है मुझे’
अब हम रसभरियों के आसपास नहीं हैं।
और तब अनिश्चय था
पेड़ों से होता हुआ बेरियों की मादकता में
फूलों और सूरज की रौशनी में
हमारी आँखें चुँधिया रही थीं
साँसों में स्त्राबेरियाँ, ओह
जागृत स्वप्न की तरह थीं
विचलित कर देने वाली गंध थी उनकी।
बहुत तेज दौड़े हम
उनके बीच कंडियाँ लेकर
थिरकते हुए, लेटते हुए
ऊँची बेरियों के डण्ठलों और वृन्तों को
ओठों से छूते हुए
ढलानों की घास पर पहाड़ी बाँज
झूल रहे थे धुएँ के अम्बार की तरह
सरसराते जंगल में
मच्छरों की झनझनाहट और
चीड़ों की साँय-साँय थी
और मैं नहीं सोच रहा था
स्त्राबेरियों के बारे में
मेरी आँखें उस औरत को देख रही थीं
उसके हर लम्हे को
खुशी के उतार-चढ़ाव को
सफेद रूमाल उसके सिर से खिसका
वह हँसी
स्त्राबेरियों को बीनती हुई
वह हँस रही थी
मैं संशय-ग्रस्त
झिझक और संदेह में उलझा हुआ
नम और लच्छेदार घास से उठकर
मैंने रसबेरियाँ किसी की कंडी में रखीं
और घने जंगल में
बगैर रास्ते के घूमने लगा।
यादों का कोई आधार न था
तथ्यों की गणना करते हुए
मैं चीड़ों की साँय-साँय से बाहर आया
आँखों को मूँद कर
गेहूँ की फसल की सतह पर
एक आँख को खोलता हुआ
(आकाश में चिड़ियाँ उड़ रही थीं)
सूखे चटियाल मैदान में बैठा मैं
गेहूँ की बालियों की सरसराती हवा को सुनता हुआ
मैंने पूछा, गेहूँ! हरेक की खुशी कैसे हो सकते हो?
गेहूँ! क्या किया जाए इसके लिए
चंट गेहूँ। आत्मस्थ, मेरी व्यक्तिगत कमजोरी
नहीं जानता इस बारे में कैसे लिया जाए
कोई भी निर्णय
मैं इसके लिए शांत और उपयुक्त नहीं
धीरे से सिर हिलाते हुए गेहूँ ने जवाब दियाμ
‘तुम न अच्छे हो और न बुरे
लेकिन नौजवान हो’
यह अच्छा सवाल था
मूक उत्तर को छोड़ने के लिए
लेकिन मूक धारणा को जवाब नहीं दिया जा सकता था।
बाँगर और पगडण्डियों से
कंटीले तारों से घिरे
घास के मैदान से होता हुआ
मैं एक खुशनुमा दोस्त से मिला
स्वाभाविक हवा में नंगे पाँव
उसका चेहरा धूल से अंटा पड़ा था
भूखा था वह युवक
उसके पास एक छड़ी थी
उस पर बूट झूल रहे थे उसके
गुस्से में कहा उसने
गेहूँ काटा जा चुका था जहाँ वह खड़ा था
और फार्म के अध्यक्ष पनक्रातोव में
अच्छाइयाँ कम और बुराइयाँ ज्यादा हैं
उसने कहाμ‘मैं इस बारे में नहीं कहने जा रहा
मैं ऊबा हूँ, मैं सच के लिए हूँ
और यदि वे ज़ीमा में साथ नहीं होंगे
तो मुझे इर्कुतस्क जाना है’
उसी समय
अचानक कहीं से एक कार आई
कार्यालय का चिन्ह था जिस पर
उसमें ब्रीफकेस लिए एक राजनीतिज्ञ था
जैसे वह अपने आप में एक समिति हो
क्या है यह
वीरों की ज़ीमा की ओर तैयारी!
जैसे कहा गया पनक्रातोवμ
तुम इस बात को समझोगे
लेकिन उस लड़के में,
उस दोस्त में सहजता न थी
नंगे पाँव साधारण और तकनीकी
हमने कहा नमस्ते
वह बढ़ने लगा अपने रास्ते पर
दिखने में छोटा
नंगे पाँव धूल और कीचड़ में सना
उसके बूट छड़ी से झूल रहे थेμदूर
एक उनींदी सुबह
हमारे रास्ते में बढ़ रही थी
तीन टन की लारी
कुछ दिनों बाद
स्थगित हुई हमारी यात्रा
वहाँ औपचारिक ‘नमस्कार’ थे
भावुक परिजनों के
मिलते हुए हाथ थे
बार-बार यात्रा के वायदे थे
कठिन था वह सम्मानित बूढ़ा व्यक्ति
साइबेरिया का काष्ठ-शिल्पी
कपड़े से लिपटी टोकरी को
लारी में रखा उसने।
आसमान में ओझल थे सुबह के तारे
आकाश की नीली सतरों से हवायें बह रही थीं
हमारी तीन टन की लारी सड़क पर वापस हो रही थी
गदराई घास अब भी
पहियांे से लिपटी हुई थी
हम कैसे पहुँचे घर
अधिक नहीं कहूँगा इस बारे में
बेहतर है यह कहना कि
संसार के साथ कैसे जगा मैं
दूध पीता हुआ
अकेला घूमता रहा घास की हरी पर्तों पर
घने जंगलों में
भटकता रहा
डोलता रहा इस पार से उस पार
सहमे-सहमे बादलों की चंचल छायाओं में
छोटी-सी बंदूक को कभी
साथ ले जाता जंगल में
निशाने का चिन्ह नहीं था उसमें
लेकिन गर्व महसूस करता था घूमते हुए
जब-जब बंदूक साथ रहती
मैं झुकी हुई टहनियों की छाया में बैठा
झुके बाँज की छाया में
बहुत-सी चिंताओं के साथ
तुम्हारा विचार
मामा वलोद्या मामा आन्द्रेइ
प्यार के साथ
मुझसे बड़ा है आन्द्रेइ
मैं उसकी नींद और उसके ऊबड़-खाबड़
कठिन जीवन को
प्यार करता हूँ
वह रास्ते की सफाई करता है सूर्योदय से पहले
जिस रास्ते ले जाता है वह
बच्चों और दूसरे लोगों को
वह गैरेज में दौड़ता है आखिर तक
जब तक कि सब थक नहीं जाते
अकेला मोटर गाड़ी में जिसे वह ‘बिल्ली मॉट’ कहता है
पहियों के ऊपर इंजन के
झटके देता हुआ
उसके आकस्मिक झगड़े --
एक और दो दिनों के लिए
देश में ही गायब हो जाना
और घर लौटता है वह
चिंतित और थका हुआ
घने जंगल में पेट्रोल की गंध से गंधाता हुआ
बहुत बेरहमी से हाथ मिलाना चाहता है वह
लड़ाई में लोगों को घुमाता है लंगड़ियाँ देकर
और पछाड़ देता है मनोरंजन में
वह ढंग से करता है हर काम को
लकड़ी काटने से लेकर रोटियों में नमक बूरने तक
वाह, मामा वलोद्या!
लोहे पर काम करते हुए जब भी दिखते हो
लकड़ी के तिनके झूलते रहते हैं बालों पर
और पैरों के आस-पास फड़फड़ाता है
हल्के रंग का फोम
एक कारीगर एक बढ़ई
कभी खड़े होकर, कभी भूसे के ढेर में बैठ कर
कहानी सुनाने में उस्ताद
अपने किसी शागिर्द के बेंच के बाजू के पास
μकि सिगड़ी किसने चुराई
और मारा कौन गया, उसके बारे में
कि कैसे गुजरते हैं
गाँव से होकर लड़ाकू लोग
और एक फ्रान्सेसका नाम की औरत ने
‘पेटर’ से एक गाना गाया उसके लिए।