भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़ीस्त की सारी आन-बान फ़ना आमादा / कृश्न कुमार 'तूर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ज़ीस्त की सारी आन बान फ़ना आमादा
ये दरो-दीवारो-मकान फ़ना आमादा

जो भी निकलते हैं अल्फ़ाज़ ज़वाल पज़ीर
जो भी कहती है ज़बान फ़ना आमादा

एक यही ज़ंजीर तआल्लुक़ की क़ायम
तेरे मेरे दरमियान फ़ना आमादा
 
बस इक उसके नाम को दवाम जहाँ में
बाक़ी जो भी है बयान फ़ना आमादा

राख हुआ जाता हूँ इक अन्दर से मैं
ये कैसा है इम्तेहान फ़ना आमादा

फूल सितारे चिड़िया दश्त समन्दर में
ये तो सारे ही निशान फ़ना आमादा

‘तूर’ इक ज़िन्दा रहने वाली बस्ती वो
ये धरती ये आसमान फ़ना आमादा