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ज़ोर कितना आदमी मारे / राम सेंगर

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वाह री , बेहया महँगाई !
कुदक्कों से निकाला
घर का कचूमर
मुर्दनी हर ख़ुशी पर छाई ।

माथ घुटनों में दिए
परिवार बैठा
आय-व्यय के
गणित में उलझा ।
टोटकों से
फुर्र होती नहीं चिन्ता
सूत्र मन का
पड़ा अनसुलझा ।
जो कमाते
लुटेरा बाज़ार छीने
लूट की क्या ख़ाक़ भरपाई ।
वाह री , बेहया महँगाई !

पूर कैसे पड़े
ढेर अपूर भिन्नें
समीकरणों के
थके-हारे ।
भूख के हल की
तड़पती आग लेकर
ज़ोर कितना
आदमी मारे ।
हुआ दूभर
बाल-बच्चों में विहँसना
ज़िन्दगी पूरी चरमराई ।
वाह री, बेहया महँगाई !