जाँघों के बीच / संदीप निर्भय
कल अरसे बाद उसके वहाँ गया था
महाजन गाँव की मटकी का
ठण्डा पानी पीते वक़्त
सुनाई दी मुझे हारमोनियम की आवाज़
और धौंकनी चला रहे हाथ से आ रही
चूड़ियों की खन-खन
हारमोनियम की आवाज़ से वज़नदार थीं
पहले वह ज़रीना बाई के कोठे पर
गाना-बजाना किया करती
अब थार के एक छोटे-से गाँव में
झोंपड़ी के भीतर
ढिबरी की हलकी रोशनी तले
आँगन के बीचों-बीच
खोज रही है हारमोनियम की साँसों में सुख
मुझे देखकर छाती से दुपट्टा हटाती हुई
हौले-से बोली, ' आ बामन आ!
क्या जनेऊ खूँटी पर टाँग आया है
क्या फेंक आया है
अकूरड़ी पर सब पोथी-पानड़ा
तो बैठ, जेठ की इस गर्मी में
क्या सुनाऊँ तुम्हें–
ठुमरी, कजरी, ग़ज़ल या कोई फ़िल्मी गीत? '
मेरी फ़रमाइश को सलाम कर वह
लग गई थी सुर साधने
मध्य सप्तक में छेड़ी होगी कोई धुन
धुन जिसे सुनकर
नहाने लग गई थीं रेत में चिड़ियाँ
कुँजियों पर थिरकती अँगुलियाँ
ऐसे लग रही थीं मुझे
जैसे नाभि और छाती के समीकरण को सुलझा रही हों
तब तक वह हारमोनियम पर गाती रही
जब तक साँसें उखड़ नहीं गई थीं
आँसुओं से चोली भीग नहीं गई थी
मेरे ललाट पर लगा चंदन तिलक
थके-माँदे बच्चे की तरह
उसकी छाती पर पसर नहीं गया था
और चारों दिशाओं के पंडों-महापंडों के तंत्र-मंत्र
उसकी जाँघों के बीच
घायल पखेरू की तरह फड़फड़ा रहे थे।