भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाओ मगर इस आने को एहसाँ नहीं करते / नज़ीर बनारसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाओ मगर इस आने को एहसाँ नहीं कहते
जो दर्द बढ़ा दे उसे दरमाँ <ref>इलाज</ref> नहीं कहते

तू हुस्ने हकीकी की है इक जिन्दा हकीकत
दुनिया तुझे हमख्वाबे परीशाँ <ref>अपने सपनो सा परेशान करने वाला</ref> नहीं कहते

लहराये गरीबों का लहू जिसकी हँसी में
ऐसे किसी लब को लबे खन्दाँ <ref>मुस्कान वाला होंठ</ref> नहीं कहते

जो रोशनी पहुँचा न सके सबके घर तक
उस जश्न को हम जश्ने चरागाँ नहीं कहते

फूलों को हँसाती होजो जख्मों की तरह से
उस फस्ल को हम फस्ले बहाराँ नहीं कहते

हर रंग के गुल जिसमें दिखायी नहीं देते
हम ऐसे गुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ नहीं कहते

पैमाने की मानिन्द जो टूटा है कई बार
पैमाँ शिकनों <ref>वादा तोड़ने वाले</ref> हम उसे पैमाँ नहीं कहते

मुजरिम की तरह उम्र के दिन काट रहे है
अपने को मगर कैदिए जिन्दाँ <ref>जेल के कैदी</ref> नहीं कहते

एहसान ही करना है तो सोचो कोई शक्ल और
जो सर को झुका दे उसे एहसाँ नहीं कहते

इन्साँ से तो लाजिम़ है ख़ता किब्ला ओ काबा
आप ऐसे फरिश्ते को हम इन्साँ नहीं कहते

कितने बड़े काफ़िर है ’नजीर’ आपके अहबाब <ref>साथी</ref>
आप ऐसे मुसलमाँ को मुसलमाँ नहीं कहते

शब्दार्थ
<references/>