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जागती ज्योति / नाथूराम शर्मा 'शंकर'
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निरखो नयान ज्ञान के खोल,
प्रभु की ज्योति जगमगाती है।
देखो, दमक रही सब ठौर, चमके नहीं कहीं कुछ और,
प्यारी हमस ब की सिरमौर, उज्ज्वल अंकुर उपजाती है।
जिसने त्यागे विषय-विकार, मन में धारे विमल विचार,
समझा सदुपदेश का सार, उस को महिमा दरसाती है।
जिसको किया कुमति ने अन्ध, बिगड़ा जीवन का सुप्रबन्ध,
कुछ भी रहा न तप का गन्ध, झलके, पर न उसे पाती है।
जिसने झंझट की झर झेल, परखे जड़-चेतन के खेल,
अपना किया निरन्तर मेल, ‘शंकर’ उसको अपनाती है।