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जागृति / मनोज श्रीवास्तव

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जागृति

गली-कूचों में उन्मत्त
नाच रही है जागृति,
चिपक रहे हैं लोग उससे,
बटोर रहे हैं--
अक्षुन्ण रतिसुख
उसके पारसी छुअन से,
चाह रही हैं औरतें
चिरयौवन,
हो रहे हैं युवा
अति-रोमांचित,
उतार-फेंक रहे हैं
दकियानूसी वस्त्र,
अपने नंगे जिस्म हर पल
सेंक रहे हैं
परिवर्तन की भट्ठी पर,
पार उतार रहे हैं
नित नए अनुभवों के सागर,
थिरका रहे हैं
उन्मादी एडियाँ,
मटका रहे हैं
स्त्रैण नितम्ब--
क्लबों से रनिवासों तक,
दौड़ा रहे हैं
चौंधियाती कारें--
चिपकाए हुए कानों से
मोबाइल
और संवेदी अंगों से
विविध प्रेमिकाएं

बेशक! बखूबी जागृति
होती है परिभाषित
उनके सनकी परेडों से तब
वे ज्यादा सक्रिय होते हैं जब
इत्र-द्रव्य लेपित प्राणियों पर,
ठठाकर हंसते हैं--
साहित्य-गोष्ठियों पर
अंगरेजीदार जुबान में
इम्पोर्टिड-सी
विचित्र मादाओं से.