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जाग उठा मज़दूर रे साथी जाग उठा मज़दूर / कांतिमोहन 'सोज़'

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जाग उठा मज़दूर रे साथी जाग उठा मज़दूर
झूटी बात यक़ीन न करना नहीं है मंज़िल दूर
रे साथी जाग उठा मज़दूर ।।

परबत जैसे पुट्ठे इसके हाथ पेड़ छतनार
मन में एक नई दुनिया के सपने लिए हज़ार
फ़ौलादी सीने में इसके ताक़त है भरपूर
रे साथी जाग उठा मज़दूर ।।

एक आँख में सुधा भरी है दूजे में अंगार
एक हाथ से सिरजन करता दूजे से संहार
हिंसक पशु भी थर-थर काँपे यह ऐसा रणशूर
रे साथी जाग उठा मज़दूर ।।

गोली खाकर शेर दहाड़े साँप भरे फुँकार
बाघ पलटकर हल्ला बोले गज उट्ठे चिंघार
इस मर्दाने से टकराकर गोली चकनाचूर
रे साथी जाग उठा मज़दूर ।।

रचनाकाल : मार्च 1982