भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाड़े की रात! / चंद्रपाल सिंह यादव 'मयंक'
Kavita Kosh से
यह जाड़े की रात
कँटीली यह जाड़े की रात,
बिस्तर में भी काँप रहा है
थर-थर-थर-थर गात।
हवा तीर सी लगती आकर
खुलती अगर रजाई,
जाने इतनी ठंड कहाँ से
हवा मुई ले आई।
हड्डी-हड्डी काँप रही है,
कट-कट करते दाँत!
हे भगवान बड़ा दुख देता
आकर हमको जाड़ा,
जाने इसका हम लोगों ने
है क्या काम बिगाड़ा,
दे दो इसको देश निकाला
मानो मेरी बात!
दादी जी इससे घबराती
दादा जी भी डरते,
हम बच्चे भी इस जाड़े में
छींका खाँसा करते।
हाय मुसीबत तब बढ़ जाती,
जब होती बरसात!