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जाड़े की सुबहें थीं, घूप के गलीचे थे / डी. एम. मिश्र

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जाड़े की सुबहें थीं, घूप के गलीचे थे
बचपन के ख़्वाबों में रेत के घरौंदे थे।

सारा दिन हिर फिर कर तितलियाँ पकड़ते थे
पंखों से नाजु़क वो नर्म-नर्म लम्हे थे।

बच्चों को टोलियाँ थीं, इमली के बूटे थे
मिसरी से मीठे वो आम के बगीचे थे।

सूरज की किरणों का ओढ़ना, बिछौना था
ममता का आँचल था, बापू के गमछे थे।