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जाड़ों के शुरू में आलू / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
वह ज़मीन से निकलता है
और सीधे बाज़ार में चला आता है
यह उसकी एक ऐसी क्षमता है
जो मुझे अक्सर दहशत से भर देती है
वह आता है और बाज़ार में भरने लगती है
एक अजीब सी धूम
अजीब सी अफ़वाहें
मैं देर तक उसके चारों ओर घूमता हूँ
और अन्त में उसके सामने खड़ा हो जाता हूँ
मैं छूता हूँ किले की तरह ठोस उसकी दीवारें
मैं उसका छिलका उठाता हूँ
और झाँककर पूछता हूँ — मेरा घर
मेरा घर कहाँ है !
वह बाज़ार में ले आता है आग
और बाज़ार जब सुलगने लगता है
वह बोरों के अन्दर उछलना शुरू करता है
हर चाकू पर गिरने के लिए तत्पर
हर नमक में घुलने के लिए तैयार
जहाँ बहुत सी चीज़ें
लगातार टूट रही हैं
वह हर बार आता है
और पिछले मौसम के स्वाद से
जुड़ जाता है ।