जाते हुए अँधेरे में मेज़ / हेमन्त कुकरेती
अँधेरे में दुख की तरह चमक रही है मेज़
धूप वहाँ है जहाँ छाया का स्पर्श किये बगैर हवा को जाना है
अकेले पेड़ के पास पीली पड़ती घास
और मेज़ पर बैठी रास्ता भूली चिड़िया उदास है
कम होतीं चीज़ें घबराकर आपस में टकराना छोड़ रही हैं
उनका आवाज़ करना कराहने जैसे दुख को गुँजाता है
मेज़ का जीवन मुश्किल होकर सहने लायक भी नहीं रहा
जो भीतर घुटता रहा ऐंठ रहा हैअब भी चल रही हैं आरियाँ
उड़ रहा है दिल बुरादे में
मेज़ के जीव में पेड़ के प्राण हैं
आत्मा जड़ों में है छुपी हुई देह पर कीलें जड़ी हैं
उसका जन्म कष्टों में सम्भव हुआ
दिखता नहीं बहता था जो ख़ून यातना की यह राह
भरी-पूरी सुबह में ओस के साथ कितनी अकेली
और कितनी ज़्यादा कम लग रही है यह मेज़
कमज़ोर सूरज की काँपती हुई उँगलियाँ
उसको छू रही हैं बहुत डरकर
वह पेड़ का कटा हुआ हाथ है सिहरन होती है उसमें
और उसे देखने वाला पेड़ अपनी जड़ों में
घुटकर रह जाता है
तमाम पेड़ों की पत्तियाँ गिर रही हैं उसकी याद में
मेज़ की टाँगों के बीच आँखें बन्द किये
बसन्त की सिसकियाँ जाते हुए अँधेरे को घना
और धूमिल कर रही हैं सुबह को