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जादू की झप्पी / पूनम सूद

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एक वक्त था
कुछ परिचित
ऐसी निगाहों से देखते,
लाख रगड़ने पर भी
उनकी नज़रें बदन से;
चिपकी रह जाती थीं।

कुछ मिलनसार हाथ मिलाने
या कुछ पकड़ाने के बहाने से
दबा देते थे हथेली।

कभी कोई करीबी
गले मिलते हुए
सहला जाता था जिस्म
कई मनचलों की, देख मुझे,
चल जाती थी आँख; तो-
कोई पास से गुज़रता हुआ,
चिकोटी काट जाता था।

उस वक्त की छेड़छाड़ से होती थी
बेबसी, लाचारी और कोफ्त
पर,
बढ़ती उम्र के साथ किया अनुभव,
शरीर एक आवरण है
जो आज नहीं तो कल,
मिट्टी में मिल जायेगा।
रह जायेगी रूह, अनछुई सी

इसलिये अब,
बशीर बद्र की गज़ल की
नसीहत के विपरीत,
कोई हाथ मिलाता है
तो गले मिल लेती हूँ
कभी चिकोटी काट,
कभी कंधा टकरा
करीब से गुजरती हूँ

लौटा देती हूँ
समाज को वापिस
जो पाया था उससे

एक अलग भाव
अलग मानसिकता से
सहला देती हूँ स्पर्श से, किसी के
भीतर का अकेलापन, असुरक्षा, उदासीनता,
एक आँख चला
स्फूर्ति से भर देती हूँ
थके बोझल दो पाँव

विचारों के आभास,
अपनी सोच के स्पर्श से
मिटा चुकी हूँ भेद,
आदमी-औरत का,
उम्र-स्टेटस का

आती है हंसी,
जब बाहरी लोग मुझे
माडर्न, बिंदास, फ्लर्ट हैं पुकारते
और घरवाले स्वतः स्पष्टीकरण
देते हुए खिसियाकर सहमति हैं जताते
"क्या किया जाये, मॉम सठिया गई हैं"।