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जानकी रामायण / भाग 21 / लाल दास

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चौपाई

कृष्ण कहल यसुदाकाँ जाय। उठु मैया दिअ दूथ दुहाय॥
नन्द बबा नहि उठला माय। बछरू जायत दूध पिपाय॥
हमरा अतिशय लागल भूख। उठु उठु राति बितल भेल ऊष॥
उठला सहित यशोदा नन्द। हरिमुख निरखि भेला आनन्द॥
मिश्री माखन दूध दुहाय। देल कृष्णकाँ मुदित पिआय॥
तहिखन देखल रथ अविदूर। अबयित रहथि सरथ अक्रूर॥
अकचकोय सभ जन उठलाह। कतय अबै अछि रथ अधलाह॥
करितहि रहथि सतर्क विचार। पहुँचि गेल रथ नन्दक द्वार॥
देखल नन्द अक्रूरक रूप। संशय बढ़ल भेला किछु चूप॥
उतरलाह अक्रूर सप्रेम। मिलि-जुलि पुछल कुशल भल क्षेम॥
नन्द महर आसन बैसाय। पुछल कतय अयलहुँ अगुताय॥
कंसक यज्ञक कहल हँकार। चलु चलु नन्द सहित परिवार॥
हमरा कहल कंस महराज। आबथु कृष्ण नन्द संग आज॥
रथ लयलहुँ हम तनिके हेतु। चलिय सबहि मिलि एखन सहेतु॥
सुनि सभ जन क्षन क्षुब्ध छलाह। कंसक डर नहि किछु बजलाह॥
कयल सबहि चलबाक विचार। नहि मथुरा बिनु गमन उबार॥
कृष्णक लय जयबामे नेह। नन्द महरकाँ बड़ सन्देह॥
तखन कहल अक्रूर बुझाय। जनु चिन्ता करु हे नन्दराय॥
देखब अहँ कौतुक विस्तार। करता लीला नन्दकुमार॥
जे कुलदेव भेलाह सहाय। कतेक दैत्यसौं लेल बचाय॥
से कृष्णक पर रहि अनुकूल। रक्षा करता हरता शूल॥
चलु-चलु सभजन जनु पछताउ। हरिकाँ कंसक यज्ञ देखाउ॥

दोहा

लेल कृष्णकाँ कोर कय परिचय दय अक्रूर।
कहल कान लगि करिय विभु वसुदेवक दुख दूर॥

चौपाई

कहल देवकिक कारागार। कंसक दारुण दण्डप्रहार॥
मातामह जे कंसक बाप। तनिको कहल दुसह दुखदाप॥
सुर नर मुनिक विपति विस्तार। धर्म विनासन पाप प्रचार॥
कहल एकान्त सकल वृत्तान्त। सुनलनि मन दय आद्योपान्त॥
कृष्णे कहल रहस्य बुझाय। स्वस्थ रहू हम करब उपाय॥
जयितहि हम छी मधुपुर आज। नाश करब तहँ दुष्ट समाज॥
ई कहि तहँसौं हरि उठि देल। नन्द महर लग स्वागत भेल॥
पुनि अक्रूर देल अगुताय। लगला सभजन होमय बिदाय॥

सोरठा

रहला जे ब्रजलोक जाय न सकला कृष्ण सँग।
तनिकाँ विरहक शोक व्यापल तनमनमे अधिक॥

चौपाई

बाढ़ल दुख अति कृष्ण बियोग। सभकाँ आयल विपतिक भोग॥
व्याकुल कानथि पीटथि देह। अओता कि नहि भेल सन्देह॥
कृष्णो मायाबद्ध भेलाह प्रीतिविवश कानय लगलाह॥
गोपी गोपक उत्कट प्रीति। सहल न हो विरहक दुख-भीति॥
कहल जखन अक्रूर बुझाय। चुप भेला चढ़ला रथ जाय॥
तखन सखा सभकेँ लय संग। चलला मथुरा श्याम त्रिभंग॥
सुनल यशोदा कृष्ण बिदाय। उर सिर पीटथि कहि कहि हाय॥
खसथि पकड़ि कति करथि विलाप। हरि विरहें बाढ़ल सन्ताप॥
राधादिक सभ गोप-कुमारि। कृष्ण-विरह-व्याकुल ब्रज नारि॥
विरह-व्यथा बाढ़ल विस्तार। नयन बहय जनि झरनाधार॥
गोपीगणकाँ विरहक आगि। धाक उठल तनमे गेल लागि॥
सभ जनि तकितहि रहलिह ठाढ़ि। रथ चल गेल नगरसौं बाढ़ि॥
सहि नहि सकली दुख-संताप। लगलिह कानय करय विलाप॥

सोरठा

कहाँ गेलहुँ श्रीकान्त हमरा सभके विकल कय।
जेहिसौं हो मन शान्त तेहन निर्दशन करिय विभु॥

चौपाई

अयला चल मधुपुर यदुनाथ। ग्वाल-बाल सभकाँ लय साथ॥
उत्तम उत्तम वसन सुचीर। पसरल छल भल यमुना-तीर॥
लेल कृष्ण सभ पट लुटवाय। ग्वाल-सखाकाँ देल पहिराय॥
रोकल रजक कयल हठमारि। मारल-तारल कृष्ण मुरारि॥
त्रेतामे से रजक प्रधान। सीता निन्दा कयल निदान॥
तेहि पापे हरि एहि अवतार। अपनहि मारि कयल उद्धार॥
कुब्जा गृह प्रवेश पुन कयल। तनिक हाथ यदुनायक धयल॥
लक्ष्मी-सन सुन्दरि बनि गेलि। कृष्णक प्राणप्रिया से भेलि॥
पूर्व रहय से लंका बीच। निशाचरी कुब्जा अति नीच॥
रघुवर लंका जखन गेलाह। सेतुबन्धसौं पार भेलाह॥
रामागमनक शुभ सम्बाद। सीताकाँ कहलक अविषाद॥
स्वामिक आगमनक सुखमूल। कुबुजहि मुखसैं सुनल समूल॥
तेँ सीता अति हर्षित भेलि। कुबजाकाँ इच्छित वर देलि॥
जखन हयत कृष्णक अवतार। हयबह दासी कंसक द्वार॥
तखन कृष्ण लेथुन अपनाय। कुब्जासौं अब्जासनि काय॥
कुब्जा सीता-वरक प्रसाद। भेलि सुखी बाढ़लि मर्य्याद॥

दोहा

तखन कृष्ण झटदय बहुरि अयला तहँसौं जूमि।
रंगभूमि शोभा सुखद देखल मन घूमि घुमि॥

चौपाई

कंसक अनुमतिसौं भट भेरि। कयल कृष्णसैं युद्ध घनेरि॥
मल्ल कुबलयादिक चाणूर। सभकाँ कृष्ण कयल हत चूर॥
लेल उपारि कुवलया-दन्त। चलला करय कंस केर अन्त॥
देखल कंसक तखन मचान। चढ़ला फानि ततय भगवान॥
कयल कंस तहँ कतेक प्रहार। नहि सुतरल प्रभुपर व्यापार॥
तनिकाँ कृष्ण पकड़ि घिसिआय। मारल तहँसौं भूमि खसाय॥
सभ जन कर तहँ जयजय घोल। कंसक नारि करय कल्लोल॥
तखन गेला तहँसौं हरि देव। जतय रहथि देवकि वसुदेव॥
छुटल दुहुक दढ़ कारागार। संसारक भय गेल उद्धार॥
सुखित भेला सभ विबुध समाज। उग्रसेन पुनि पाओल राज॥

दोहा

उग्रसेन राजा रहथि कृष्ण करथि सभ काज।
प्रजा सुखित रिपुगण दुखित प्रमुदित विबुध समाज॥

सोरठा

नन्द आदि उपनन्द ग्वाल बाल सभकाँ तखन।
बिदा कयल ब्रजवन्द कहल मिलब शय बरष पर॥