जानकी -मंगल / तुलसीदास / पृष्ठ 4
।।श्रीहरि।।
( जानकी -मंगल पृष्ठ 4)
विश्वामित्रजी की राम-भिक्षा
( छंद 17 से 24 तक)
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भई।
सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं।17।
रामहिं भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ।18।
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं।
प्रेम पयोधि मगन मुनि न पावहिं।19।
मधुर मनोहर मूरति चाहहिं ।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं।20।
राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन।
भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन। 21।
तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक।
तेहिं तें बूझत काजु डरौं मुनिदायक।22।
कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहिं।
धर्मकथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहिं।23।
जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ।
भयउ सनेह सत्य बस उतरू न आयउ।24।
(छंद3)
आयउ न उतरू बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ।
कहि गाधि सुत तप तेज कछु रघुपति प्र्रभाउ जनायऊ।।
धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी।।
करूना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं बिनती घनी।3।
(इति जानकी -मंगल पृष्ठ 4)