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जाने कब... / पवन चौहान
Kavita Kosh से
आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते-खींचते
जाने कब वह अक्षर बनाना सीख गया
बोलना सीख गया
अपने पन्नों के लिए
अपने अपनों के लिए
जाने कब लाँघ गया था वह
दहलीज बचपन की
और मैं वहीं खड़ा तलाशता रहा उसे
देता रहा जोर-जोर से आवाज़
पर वह गुम गया
शब्दों की अनंत भीड़ में
आज वही शब्द चुभने लगे हैं मुझे
सताने लगे हैं
दे रहे हैं अब ढेर सारा दर्द
सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते
हर जगह हर घड़ी
कलम वाले हाथ
अब नाप रहे हैं मेरा शरीर भी
और मैं असहाय खड़ा
झुर्रियाँ लटकाए
नम आखों से देख रहा हूँ
एक-एक पल को खिसकता
सदियाँ समेटता
और सोचता
जाने किस अक्षर को जोड़ते-जोड़ते
टूटी होगी मेरी कलम
फिसली होगी मेरी उंगलियों से
मैं बार-बार लौट रहा हूँ
उसी दहलीज पर
खींच रहा हूँ बेटे को भीतर।