जाने कहाँ गए वो दिन! / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
सब, सबके मन को भाते,
सब मिल-जुल हँसते-गाते,
असली रिश्तों जैसे थे,
मुँहबोले रिश्ते-नाते,
प्यार बरसता था छिन-छिन।
जाने कहाँ गए वो दिन!
आपसे में मतभेद न था,
मन में कोई खेद न था,
तनिक-तनिक सी बातों पर,
बैर और विच्छेद न था,
ख़ुश थे भाई और बहिन।
जाने कहाँ गए वो दिन!
छल-छद्मों का भाव नहीं,
था कुछ दम्भ-दूराव नहीं,
दर्द किसी के दिल में हो,
था ऐसा बर्ताव नहीं,
मन था कोई नहीं मलिन।
जाने कहाँ गए वो दिन!
सब में भाईचारा था,
फ़र्ज़ सभी को प्यारा था,
मानवता का मान करो,
हर ज़बान का नारा था,
मिलन गीत गाते अनगिन।
जाने कहाँ गए वो दिन!
कोई नहीं अकेला था,
दुख का दूर झमेला था,
हर घर-आंगल में लगता,
नित ख़ुशियों का मेला था,
विकसित रहते हृदय-नलिन।
जाने कहाँ गए वो दिन!
ऊँच-नीच का नाम न था,
नफ़रत का कुछ काम न था,
दानव-सी करनी करके,
यूँ मानव बदनाम न था,
कठिन काम भी थे मुमक़िन।
जाने कहाँ गए वो दिन!
मीठी बानी रही नहीं,
प्रेम कहानी रही नहीं,
सब कुछ बदल गया, कोई,
रीत पुरानी रही नहीं,
आदर्शों पर पड़ा तुहिन।
जाने कहाँ गए वो दिन!
मनुज-मनुज में फ़र्क हुआ,
कटुता से संपर्क हुआ,
किसको भला-बुरा समझें,
सबका बेड़ा ग़र्क हुआ,
मानव जीवन बना विपिन।
जाने कहाँ गए वो दिन!