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जाने कितने ही उजालों का दहन होता है / द्विजेन्द्र 'द्विज'

जाने कितने ही उजालों का दहन होता है

लोग कहते हैं यहाँ रोज़ हवन होता है


मंज़िलें उनको ही मिलती है कहाँ दुनिया में

रात—दिन सर पे बँधा जिनके क़फ़न होता है


जब धुआँ साँस की चौखट पे ठहर जाता है

तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है


खोटे सिक्के कि कोई मोल नहीं था जिनका

आज के दौर में उनका भी चलन होता है


बस यही ख़्वाब फ़क़त जुर्म रहा है अपना

ऐसी धरती कि जहाँ अपना गगन होता है.