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जाने किसी ने क्या कहा तेज़ हवा के शोर में / सलीम अहमद
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जाने किसी ने क्या कहा तेज़ हवा के शोर में
मुझ से सुना नहीं गया तेज़ हवा के शोर में
मैं भी तुझे न सुन सका तू भी मुझे न सुन सका
तुझ से हुआ मुकालिमा तेज़ हवा के शोर से
कश्तियों वाले बे-ख़बर बढ़ते रहे भँवर की सम्त
और मैं चीख़त रहा तेज़ हवा के शोर से
मेरी ज़बान-ए-आतिशीं लौ थी मिरे चराग़ की
मेरा चराग़ चुन न था तेज़ हवा के शोर से
जैसे ख़रोश-ए-बहर में शोर-ए-परिंद डूब जाए
डूब गई मिरी सदा तेज़ हवा के शोर से
नौहा-गरान-ए-शाम-ए-ग़म तुम ने सुना नहीं मगर
कैसा अजीब दर्द था तेज़ हवा के शोर में
मेरे मकाँ की छत पे थे ताएर-ए-शब डरे डरे
जैसे पयाम-ए-मर्ग था तेज़ हवा के शोर से
मिन्नत-ए-गोश-ए-बे-हिसाँ कौन उठाए अब ‘सलीम’
नौहा-ए-ग़म मिला दिया तेज़ हवा के शोर से