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जाने किस ख़्वाब का सय्याल नशा हूँ मैं भी / राज नारायन 'राज़'

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जाने किस ख़्वाब का सय्याल नशा हूँ मैं भी
उजले मौसम की तरह एक फ़ज़ा हूँ मैं भी

हाँ धनक टूट के बिखरी थी मिरे बिस्तर पर
ऐ सुकूँ लम्स तिरे साथ जिया हूँ मैं भी

राह पामाल थी छोड़ आया हूँ साथी सोते
कोरी मिट्टी का गुनह-गार हुआ हूँ मैं भी

कितना सरकश था हवाओं ने सज़ा दी कैसी
काठ का मुर्ग़ हूँ अब बाद-नुमा हूँ मैं भी

कैसी बस्ती है मकीं जिस के हैं बूढ़े बच्चे
क्या मुकद्दर है कहाँ आ के रूकाँ हूँ मैं भी

एक बे-चेहरा सी मख़लूक है चारों जानिब
आईनों देखो मुझे मस्ख़ हुआ हूँ मैं भी

हाथ शमशीर पे है ज़ेहन पस-ओ-पेश में है
‘राज़’ किन यारों के मा-बैन खड़ा हूँ मैं भी