जाने किस दूर वन-प्रांतर से उड़ कर / अज्ञेय
जाने किस दूर वन-प्रान्तर से उड़ कर
आया एक धूलि-कण।
ग्रीष्म ने तपाया उसे, शीत ने सताया उसे,
भव ने उपेक्षा के समुद्र में डुबाया उसे,
पर उस में थी कुछ ऐसी एक धीरता-
जीवन-समर में थी ऐसी कुछ वीरता,
जग सारा हार गया, डाल हथियार गया,
अपने कलंक की ही कालिमा के बिन्दु में
डूबा वह, या कि आत्म-ताडऩा के सिन्धु में?
और वह धूलि-कण
द्रौपदी के पट जैसा, वारिधि के तट जैसा
वामन की माँग-सा अनन्त,
भूख की पुकार-सा दुरन्त
बढ़ता चला गया-
व्योम-भर छा गया-
शून्यता भी पूर्ति से छलक गयी-
तिमिर में दामिनी दमक गयी-
धूलि-कण में विभूति-किरण चमक गयी!
रेणु थी जो धूलि थी-
आज वह हो गयी
शिरसावतंस इस धूल-भरे जग की
- वही जो कभी थी- जो है- रेणु तेरे पग की!
यह अब है- जब मैं ने पाया तेरा प्यार!
ओ सुकुमार- सौरभ-स्निग्ध- ओ सुकुमार!
यह गौरव है तेरा ही उपहार!
बिन पाये क्या था मैं, पर अब क्या न हुआ पा तेरा प्यार!
धूलि स्वयं, पर आज मुझे है तुच्छ धूलि से भी संसार!
ओ सकुमार- सौरभ स्निग्ध- ओ सुकुमार!
ऐसा अब जब मैं ने पाया तेरा प्यार!
मुलतान जेल, 11 दिसम्बर, 1933