जाने किस बात की वो मुझको सज़ा देता है
ज़हर देता है न फिर कोई दवा देता है
ग़ैर-मुमकिन है ये छुप जाएं मेरी नज़रों से
तेरा हंसना तिरे ज़ख्मों का पता देता है
वो सलामत रहे परदेस में जाने वाला
दीप मंदिर में कोई रोज़ जला देता है
जी में आता है कि मैं उसको मसीहा कह दूं
मेरे होंठों पे तबस्सुम जो खिला देता है
उसकी रहमत पे कभी शक नहीं करना ख़ुशबू
वो तो सहरा को भी गुलज़ार बना देता है